
भारतीय संस्कृति की विलक्षणता ही यही है कि यहाँ जीवन के प्रत्येक आयाम को धर्म, दर्शन और प्रकृति के साथ घनिष्ठ रूप से जोड़ा गया है। चातुर्मास इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह चार मास का कालखंड केवल तिथियों का जोड़ नहीं, बल्कि आंतरिक जागरण और जीवन-धारा को परिष्कृत करने का अवसर है।
चातुर्मास का आरंभ और स्वरूप
हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवउठनी एकादशी तक का समय चातुर्मास कहलाता है। इसे देवों की निद्रा का काल भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस अवधि में स्वयं भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर योगनिद्रा में चले जाते हैं।
इस दौरान सृष्टि मानो थम सी जाती है। वृक्षों में नवपल्लव धीमे-धीमे पनपते हैं, पृथ्वी वर्षा की बूंदों से जीवन रस संचित करती है। प्रकृति के इस ठहराव का सीधा संकेत यही है कि मनुष्य भी इस अवधि में बाह्य व्यस्तताओं को विराम देकर अपने अंतर को निहारने की चेष्टा करे।
चातुर्मास: धार्मिक और सामाजिक दृष्टि

शास्त्रों में चातुर्मास को तप, व्रत, दान और साधना का परम काल बताया गया है। यह संयम का अभ्यास कर आत्मानुशासन को दृढ़ करने का समय है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इस अवधि में विवाह, गृह प्रवेश जैसे मंगल कार्य वर्जित हैं। इसका कारण यह नहीं कि ये कार्य अशुभ हो जाते हैं, बल्कि इसलिए कि व्यक्ति को चार महीने तक सांसारिक भोग-विलास से दूर रहकर साधना में प्रवृत्त होना चाहिए।
यही कारण है कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि इस समय अपने प्रवास को स्थगित कर एक स्थान पर निवास करते थे। आश्रमों में प्रवचन, कथा, यज्ञ और ध्यान की विशेष व्यवस्था होती थी। ग्रामीण समाज भी इस अवसर को मिलजुलकर भजन-कीर्तन और सामूहिक अनुष्ठानों में परिणत करता था।
आज भी भारत पल्स न्यूज की रिपोर्टों के मुताबिक देश के अनेक हिस्सों में चातुर्मास के आगमन के साथ मंदिरों में विशिष्ट पूजन और भागवत सप्ताह की तैयारियां जोरों पर रहती हैं। कई स्थानों पर संत-महात्मा इन महीनों में प्रवास न कर अपने आश्रमों में रुककर ही उपदेश देते हैं। इससे धर्म और समाज दोनों में स्थिरता आती है।
स्वास्थ्य और पर्यावरण का अद्भुत समन्वय
चातुर्मास का महत्व केवल आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि शारीरिक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है। वर्षा ऋतु में वातावरण में आर्द्रता बढ़ने से रोगाणु तेजी से पनपते हैं। ऐसे में सात्त्विक आहार, अल्प भोजन और उपवास से न केवल पाचन तंत्र को विश्राम मिलता है, बल्कि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी सुदृढ़ होती है।
इसी प्रकार वर्षा में यात्रा करने से बीमारियों का प्रसार बढ़ सकता है, मार्ग अवरुद्ध हो सकते हैं। अतः यात्रा कम करना और एक स्थान पर निवास करना इस काल की व्यावहारिक बुद्धिमत्ता को भी प्रमाणित करता है।
चातुर्मास के प्रमुख नियम और परंपराएं
इस दौरान कई लोग व्रत का विशेष पालन करते हैं। कुछ एक समय भोजन लेते हैं, कुछ लहसुन-प्याज, मांस-मदिरा का परित्याग करते हैं। कई परिवार इस अवसर पर तुलसी दल, श्रीहरि या देवी लक्ष्मी का नित्य पूजन कर अपने घर को आध्यात्मिक ऊर्जा से भरने का प्रयत्न करते हैं।
मंदिरों में कीर्तन, रात्रि जागरण, प्रवचन और सामूहिक पूजा का आयोजन होता है। इससे न केवल धार्मिक वातावरण निर्मित होता है बल्कि समुदाय में आपसी मेलजोल और आत्मीयता भी बढ़ती है।
भारत पल्स न्यूज ने हाल में प्रकाशित अपने विशेष आलेख में यह दर्शाया कि ग्रामीण भारत में अभी भी चातुर्मास के समय विशेष धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां देखने को मिलती हैं। गांव-गांव में मंडलियां सजती हैं और भागवत कथा का अनुष्ठान होता है।
आत्मकल्याण की अनुभूति
अंततः चातुर्मास का वास्तविक प्रयोजन यही है कि मनुष्य अपने जीवन को बाहरी जगत से हटाकर भीतर की ओर मोड़े। जब भगवान स्वयं योगनिद्रा में चले जाते हैं, तब मनुष्य को भी अपनी इच्छाओं, वासनाओं और अहंकार पर विराम लगाकर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।
इस चार मास की साधना जीवन में एक ऐसा संतुलन लाती है जो न केवल धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है, बल्कि शरीर, मन और आत्मा — तीनों को स्वस्थ एवं समृद्ध करता है।
यही चातुर्मास की कालजयी परंपरा है, जो हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति में बहती आ रही है और आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यह हमें स्मरण कराती है कि स्थायित्व, संयम और साधना के बिना जीवन की वास्तविक गरिमा अधूरी रह जाती है।
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