
भारत की धार्मिक परंपराएं केवल रीतियों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित रखने की एक अद्भुत व्यवस्था हैं। इन्हीं परंपराओं में एक महत्वपूर्ण व्रत है देवशयनी एकादशी, जो इस वर्ष 6 जुलाई को पड़ रही है। इस दिन का महत्व आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक जीवन के लिए भी अतुलनीय है।
देवशयनी एकादशी: एक परिचय
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसे हरिशयनी एकादशी और पद्मनाभा एकादशी भी कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार, इस दिन भगवान विष्णु चार महीने के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसे चातुर्मास कहा जाता है। इस कालखंड में संसार के क्रियाकलापों पर अदृश्य रूप से विराम लगता है। मान्यता है कि इन चार महीनों में शुभ कार्य जैसे विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश आदि नहीं करने चाहिए क्योंकि देवता स्वयं विश्रामरत रहते हैं।
6 जुलाई: पुण्य की महातिथि
भारत पल्स न्यूज में प्रकाशित विशेष आलेखों के अनुसार, इस वर्ष 6 जुलाई को देवशयनी एकादशी का पावन पर्व है। देशभर के मंदिरों में इसको लेकर तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। जगह-जगह भजन संध्याएं, संकीर्तन और रात्रि जागरण के आयोजन हो रहे हैं। यह तिथि इसलिए भी विशेष मानी जाती है क्योंकि इसके बाद चातुर्मास का प्रारंभ होता है, जो समूचे आध्यात्मिक अनुशासन का काल है।
व्रत का गूढ़ रहस्य
देवशयनी एकादशी का व्रत केवल औपचारिक अनुष्ठान नहीं है। यह आत्मशुद्धि और अंतरावलोकन का अनुपम अवसर है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, सत्य युग में राजा मान्धाता के राज्य में भीषण अकाल पड़ा। न तो वर्षा हुई, न ही अन्न का उत्पादन। राजभवन से लेकर झोपड़ी तक त्राहिमाम मच गया। तब महर्षि अंगिरा ने उन्हें देवशयनी एकादशी का व्रत रखने की सलाह दी। राजा ने विधिपूर्वक इस व्रत का पालन किया। उसके प्रभाव से इंद्र देव प्रसन्न हुए और मेघों ने झमाझम वर्षा कर राज्य को समृद्ध कर दिया।
यह कथा न केवल धर्मशास्त्र की गाथा है, बल्कि यह बताती है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध कितना गहन है। व्रत के माध्यम से जब मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करता है, तब वह अदृश्य शक्तियों को भी संतुलित करता है।
व्रत की विधि और नियम
6 जुलाई को प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। भगवान विष्णु का ध्यान कर व्रत का संकल्प लें। दिनभर फलाहार करें और कड़वे, तामसिक तथा वर्जित पदार्थों का त्याग करें। रात को जागरण कर श्रीहरि के नाम का कीर्तन करें। द्वादशी को यथाशक्ति दान व ब्राह्मण भोजन कराएं। इस व्रत में मन, वचन और कर्म की पवित्रता विशेष रूप से आवश्यक है।
शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि इस दिन तुलसीदल से भगवान विष्णु की पूजा अवश्य करनी चाहिए। यह उनके अत्यंत प्रिय माने जाते हैं।
चातुर्मास: संयम और साधना का काल
देवशयनी एकादशी से ही चातुर्मास आरंभ होता है। यह वह अवधि है जब साधु-संत अपने प्रवास स्थगित कर एक स्थान पर रहकर तप, ध्यान और स्वाध्याय में लीन रहते हैं। सामान्य गृहस्थों के लिए भी यह आत्मसंयम का समय है। इस दौरान खान-पान, व्यवहार और जीवनशैली में संयम बरतने का विशेष महत्व है।
व्रत का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
आधुनिक विज्ञान भी उपवास को शरीर के लिए लाभकारी मानता है। विशेषकर वर्षा ऋतु में जब पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है, उपवास से शरीर को प्राकृतिक विश्राम मिलता है। यह न केवल पाचन तंत्र को दुरुस्त करता है बल्कि रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाता है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव
भारत पल्स न्यूज की रिपोर्ट में बताया गया कि 6 जुलाई को कई स्थानों पर सामूहिक कीर्तन, भजन मंडलियां और भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है। इससे जहां एक ओर धार्मिक वातावरण बनता है, वहीं समाज में आपसी मेलजोल भी प्रगाढ़ होता है। छोटे गाँवों में तो यह पर्व सामाजिक एकता की डोर को और मजबूत कर देता है।
निष्कर्ष
देवशयनी एकादशी का पर्व केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है जो हमें प्रकृति, समाज और आत्मा से जोड़ता है। यह व्रत याद दिलाता है कि जीवन की आपाधापी में कभी-कभी ठहरना भी आवश्यक है। भगवान विष्णु के योगनिद्रा में जाने का यह प्रतीकात्मक अर्थ है कि सृष्टि को भी विश्राम की आवश्यकता है।
6 जुलाई को जब आप इस व्रत को श्रद्धा से करेंगे, तो यह न केवल पापों का क्षालन करेगा, बल्कि आपके अंतर्मन में छुपे संशय और दुर्बलताओं को भी हर लेगा। यही देवशयनी एकादशी का गूढ़ और चिरंतन रहस्य है — स्वयं में झांकने और स्वयं को श्रेष्ठ बनाने की यात्रा।
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