
नई दिल्ली | भारत पल्स न्यूज ब्यूरो:
हर साल जब सावन का महीना दस्तक देता है, तो देशभर में एक अदृश्य अनुशासन शुरू हो जाता है। शिवालयों में घंटियों की गूंज, कांवड़ियों की आस्था, और व्रत-उपवास की परंपराएं जहां वातावरण को भक्तिमय बना देती हैं, वहीं कुछ ऐसे अनुशासन भी हैं जो वर्षों से लोगों की सोच और व्यवहार का हिस्सा बन चुके हैं। इनमें से एक है — सावन में बाल न कटवाना।
आखिर क्या वजह है कि इस मास में बाल कटवाना वर्जित माना जाता है? क्या यह केवल धार्मिक डर है, या इसके पीछे कोई सांस्कृतिक, ज्योतिषीय या वैज्ञानिक कारण भी छिपा हुआ है? भारत पल्स न्यूज की विशेष रिपोर्टर टीम ने इस विषय पर गहराई से पड़ताल की, और जो तथ्य सामने आए, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करते हैं।

श्रावण मास की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि: संयम की चरम परिभाषा
सावन का महीना भगवान शिव की आराधना का वह काल है, जब आस्था अपने शिखर पर होती है। यह मास केवल पूजा या मंत्रोच्चार का नहीं, बल्कि संयम, त्याग और आत्मचिंतन का भी समय होता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दौरान भोग-विलास से दूरी बनाना, शरीर पर नियंत्रण रखना और आत्मिक साधना को प्राथमिकता देना जरूरी होता है। यही कारण है कि सज्जा और श्रृंगार से जुड़े कार्य — विशेष रूप से बाल कटवाना, दाढ़ी बनवाना या शेविंग — को इस माह में वर्जित समझा गया है।
बाल कटवाना: पवित्रता या अपवित्रता का प्रश्न?
संस्कृति विशेषज्ञों का मानना है कि बाल केवल शरीर की शोभा नहीं, बल्कि आत्मिक ऊर्जा के संवाहक होते हैं। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार, जब व्यक्ति तपस्या की अवस्था में होता है, तब शरीर की प्राकृतिक अवस्था को यथावत रखना आध्यात्मिक बल को बढ़ाता है। ऐसे में बाल काटना एक प्रकार की आत्मिक असंयमता मानी जाती है।
भारत पल्स न्यूज के एक वरिष्ठ रिपोर्टर ने काशी, उज्जैन, नासिक और देवघर जैसे शिवस्थलों पर जाकर जब यह मुद्दा उठाया, तो साधुओं, पुजारियों और आम भक्तों का मत साफ था — “श्रावण में बाल कटवाना, तपस्या के अनुशासन को तोड़ना है।”
ज्योतिष और ऊर्जा विज्ञान की दृष्टि से क्या है तर्क?
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार, सावन के दौरान सूर्य कर्क राशि में स्थित होता है और चंद्रमा की स्थिति भी संवेदनशील होती है। यह मानसिक उथल-पुथल और भावनात्मक अस्थिरता का समय होता है। बाल, जो शरीर की ऊर्जा के संचालक माने जाते हैं, उन्हें काटना व्यक्ति की ऊर्जा प्रणाली में व्यवधान डाल सकता है।
कुछ मान्यताओं के अनुसार, बालों की कटिंग सिर की जैविक ऊर्जा को बाहर कर सकती है, जिससे मानसिक संतुलन में हलचल उत्पन्न होती है। ऐसे में वर्जना केवल धार्मिक नहीं, बल्कि ऊर्जात्मक सुरक्षा का भी संकेत है।
गांवों में आज भी है ‘सावन संहिता’ का पालन
शहरों में भले ही यह धारणा धीमी पड़ गई हो, लेकिन भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी यह परंपरा जीवंत है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश के गांवों में नाई खुद सावन भर बाल नहीं काटते। इसे वे धार्मिक आचरण का हिस्सा मानते हैं, न कि व्यावसायिक गतिविधि का।
भारत पल्स न्यूज की ग्रामीण संवाददाता टीम ने जब छपरा, आजमगढ़ और सीधी जैसे क्षेत्रों में जाकर रिपोर्ट तैयार की, तो वहां के स्थानीय लोगों का स्पष्ट मत था — “श्रावण में बाल कटवाने से दुर्भाग्य आता है, और शिवजी की कृपा दूर हो जाती है।”
शहरों में बदलती सोच: धर्म बनाम पेशेवर ज़रूरतें
शहरों में बदलती जीवनशैली और पेशेवर ज़िम्मेदारियों के बीच यह परंपरा अब उतनी कठोरता से नहीं निभाई जाती। युवाओं के लिए अब यह अधिकतर व्यक्तिगत चुनाव बन चुका है। बालों की ट्रिमिंग, हेयरस्टाइलिंग और दाढ़ी की शेविंग अब दैनिक जीवन का हिस्सा है — विशेषकर जब पेशेवर छवि दांव पर हो।
परंतु, अब भी एक बड़ा तबका ऐसा है जो श्रद्धा से प्रेरित होकर इस परंपरा को निभाता है। उनके लिए सावन का महीना केवल कैलेंडर का एक पन्ना नहीं, बल्कि आत्मनियंत्रण की कसौटी है।
क्या कहता है विज्ञान? क्या है हकीकत?
विज्ञान इस मान्यता को धार्मिक मान्यता कहकर खारिज करता है। डर्मेटोलॉजिस्ट्स और ट्राइकोलॉजिस्ट्स के अनुसार, मानसून के समय बालों की देखभाल और स्कैल्प की सफाई आवश्यक होती है, और समय-समय पर ट्रिमिंग फायदेमंद भी मानी जाती है।
हालांकि, यह भी स्पष्ट है कि विज्ञान बाल कटवाने को किसी विशिष्ट महीने से नहीं जोड़ता। यानी श्रावण में बाल कटवाना हानिकारक नहीं, लेकिन अगर कोई इसे श्रद्धा से जोड़ता है, तो वह उसका व्यक्तिगत अधिकार है।
निष्कर्ष: परंपरा और तर्क के बीच संवाद आवश्यक है
सावन का महीना हमें अनुशासन, त्याग और आत्मसाक्षात्कार का पाठ पढ़ाता है। सावन मे बाल न कटवाने की परंपरा उस तप और संयम का हिस्सा है जिसे हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति संजोए हुए है।
आज का दौर भले ही तार्किकता और वैज्ञानिक सोच का है, लेकिन श्रद्धा को केवल अंधविश्वास कहना उस भावनात्मक विरासत के साथ अन्याय होगा जिसने सदियों तक समाज को दिशा दी है।
समझदारी इसी में है कि हम परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सम्मानजनक पुल बनाएं — जहाँ आस्था भी जीवित रहे और आवश्यकता भी अपमानित न हो।
रिपोर्ट: भारत पल्स न्यूज | डेस्क इनचार्ज: धर्म, समाज व परंपरा विशेष प्रभाग
फील्ड रिपोर्टिंग: काशी, देवघर, उज्जैन, वाराणसी, छपरा, सीधी | संपादन सहयोग: डिजिटल रिसर्च टीम
स्वीकृति: प्रधान संपादक, भारत पल्स न्यूज़
More Stories
एक ही दिन शिव और विष्णु की भक्ति: जब कामिका एकादशी और सावन सोमवार साथ आए
पहला सावन का सोमवार 14 जुलाई को: जानिए कैसे करें शिव की आराधना
चातुर्मास: संयम, साधना और आत्मकल्याण का अनुपम पर्व