देश के कई शहरों और कस्बों में पिछले कुछ महीनों से आबारा कुत्तों का मुद्दा लगातार सुर्खियों में है। कहीं बच्चे और बुजुर्ग इनकी आक्रामक हरकतों का शिकार हो रहे हैं, तो कहीं सड़क हादसों की वजह यही कुत्ते बन रहे हैं। गली-मोहल्लों में झुंड के झुंड घूमते ये कुत्ते अब सिर्फ पशु कल्याण का सवाल नहीं रहे, बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा और प्रशासनिक जिम्मेदारी का विषय बन गए हैं। भारत पल्स न्यूज की यह रिपोर्ट इस बढ़ते खतरे, कानूनी प्रावधानों, प्रशासनिक प्रक्रियाओं, जनता की प्रतिक्रियाओं और संभावित समाधानों पर विस्तार से नजर डालती है।
घटनाओं का बढ़ता ग्राफ
पिछले एक साल में कई राज्यों से ऐसे मामले सामने आए हैं जहां आबारा कुत्तों के हमले में लोगों को गंभीर चोटें आईं और कुछ मामलों में जान तक चली गई। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली-एनसीआर, मध्य प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में घटनाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। छोटे बच्चों पर हमले के मामले ज्यादा देखने को मिलते हैं क्योंकि वे खुद को बचाने में सक्षम नहीं होते।
स्थानीय अस्पतालों के आंकड़े बताते हैं कि शहरी इलाकों में रोजाना दर्जनों लोग कुत्तों के काटने के बाद रेबीज़ इंजेक्शन लेने पहुंचते हैं। ग्रामीण इलाकों में, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं, स्थिति और भी गंभीर है।
कानूनी ढांचा और सीमाएं
भारत में आवारा कुत्तों के संबंध में मुख्य रूप से ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960’ और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश लागू होते हैं। इन कानूनों के तहत किसी भी स्वस्थ आवारा कुत्ते को मारना या उससे हिंसा करना दंडनीय अपराध है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार यह स्पष्ट किया है कि आबारा कुत्तों को मारकर समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता, बल्कि उनकी नसबंदी और टीकाकरण पर जोर देना चाहिए।
इसके अलावा, ‘एनिमल बर्थ कंट्रोल (ABC) रूल्स 2023’ के तहत स्थानीय निकायों को कुत्तों की पकड़, नसबंदी, टीकाकरण और फिर उन्हें उसी स्थान पर छोड़ने का प्रावधान है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य उनकी संख्या को नियंत्रित करना और आक्रामक व्यवहार को कम करना है।
प्रशासनिक प्रक्रिया और चुनौतियां
नगर निगमों और नगर पालिकाओं की जिम्मेदारी है कि वे नियमित रूप से आबारा कुत्तों की गिनती, नसबंदी और टीकाकरण का कार्यक्रम चलाएं। लेकिन अधिकांश नगर निकायों के पास पर्याप्त संसाधन और प्रशिक्षित स्टाफ नहीं होता।
कुछ शहरों में यह काम निजी एजेंसियों और एनजीओ को ठेके पर दिया जाता है, लेकिन निगरानी की कमी के कारण यह पूरी तरह प्रभावी नहीं हो पाता। कई बार कुत्तों को पकड़ने और उन्हें वापस छोड़ने की प्रक्रिया में लापरवाही बरती जाती है, जिससे उनकी आक्रामकता और बढ़ जाती है।
जनता की प्रतिक्रिया
लोगों के बीच इस मुद्दे पर दो स्पष्ट धाराएं हैं।
पहली, जो मानवीय दृष्टिकोण से देखती है और चाहती है कि कुत्तों को मारने की बजाय उनका सही इलाज और देखभाल हो।
दूसरी, जो लगातार हमलों और बढ़ते खतरों से परेशान होकर प्रशासन से सख्त कदम उठाने की मांग करती है, जिसमें कुत्तों को स्थायी रूप से हटाना भी शामिल है।
सोशल मीडिया पर यह बहस अक्सर तीखी हो जाती है। पशु अधिकार कार्यकर्ता मानते हैं कि समस्या की जड़ इंसानों की लापरवाही है—कचरा प्रबंधन की खराब स्थिति और पालतू जानवरों को छोड़ देने की प्रवृत्ति। दूसरी ओर, कई निवासी बताते हैं कि रात में झुंड में घूमते कुत्ते सड़कों पर निकलना मुश्किल बना देते हैं।
स्वास्थ्य और सुरक्षा पर असर
रेबीज़ भारत में एक बड़ी स्वास्थ्य चिंता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में रेबीज़ से होने वाली वैश्विक मौतों का लगभग 36% हिस्सा है। इसमें अधिकांश मामले कुत्तों के काटने से जुड़े होते हैं।
सड़क दुर्घटनाओं में भी इनका योगदान है। अचानक सड़क पर दौड़ पड़ने या झुंड में हमला करने से वाहन चालकों का संतुलन बिगड़ जाता है। मोटरसाइकिल सवार और साइकिल चालकों के लिए यह खतरा और ज्यादा होता है।
बैकग्राउंड: क्यों बढ़ रही है समस्या
आबारा कुत्तों की संख्या बढ़ने के पीछे कई वजहें हैं:
- शहरी इलाकों में कचरा प्रबंधन की कमी, जिससे उन्हें आसानी से भोजन मिल जाता है।
- पालतू कुत्तों की अनियंत्रित प्रजनन और मालिकों द्वारा उन्हें छोड़ देना।
- नसबंदी और टीकाकरण कार्यक्रमों का अधूरा क्रियान्वयन।
- शहरों का फैलाव और जंगलों का खत्म होना, जिससे कुत्तों का प्राकृतिक आवास कम हुआ।
संभावित समाधान
विशेषज्ञ मानते हैं कि समस्या का हल एक समन्वित और दीर्घकालिक रणनीति में है।
- व्यापक नसबंदी और टीकाकरण अभियान – शहर और गांव दोनों में एक साथ चलाया जाए।
- कचरा प्रबंधन सुधार – खुले में पड़ा भोजन और कचरा उनके लिए स्थायी आकर्षण है।
- जनजागरूकता – लोगों को पालतू जानवरों की जिम्मेदारी, नसबंदी और देखभाल के बारे में शिक्षित करना।
- स्थायी आश्रयगृह – बीमार और आक्रामक कुत्तों के लिए सुरक्षित स्थान।
- कानूनी प्रवर्तन – पालतू जानवरों को छोड़ने वालों पर सख्त कार्रवाई।
प्रशासन और जनता की साझेदारी
यदि प्रशासन, एनजीओ और आम लोग मिलकर काम करें तो इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, जयपुर और चेन्नई जैसे शहरों में बड़े पैमाने पर नसबंदी कार्यक्रमों ने कुत्तों की संख्या में गिरावट लाई है और आक्रामकता के मामलों को कम किया है।
निष्कर्ष
आबारा कुत्तों का आतंक केवल एक पशु प्रबंधन का मुद्दा नहीं, बल्कि शहरी प्रशासन, जनस्वास्थ्य और सामाजिक जिम्मेदारी का संयुक्त मामला है। कानूनी बाध्यताओं और मानवीय दृष्टिकोण के बीच संतुलन बनाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं।
जब तक नसबंदी, टीकाकरण और कचरा प्रबंधन को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहेगा। भारत पल्स न्यूज की यह खास रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि समाधान के लिए न तो महज भावुकता काफी है और न ही कठोरता—जरूरत है ठोस, संगठित और दीर्घकालिक कदम उठाने की।
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