
पुरी की पावन धरती पर एक बार फिर श्रद्धा, भक्ति और परंपरा का विराट संगम देखने को मिला है। 2025 में जगन्नाथ यात्रा ने एक नई आभा के साथ आरंभ 26 जून से होकर देश-विदेश के करोड़ों श्रद्धालुओं का ध्यान आकर्षित किया है। यह केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक बन चुका है। हजारों वर्षों से चली आ रही इस यात्रा की परंपरा, आज भी उतनी ही प्रासंगिक, प्रभावशाली और जनभावनाओं से जुड़ी हुई है, जितनी पहले हुआ करती थी।
पुरातनता से आधुनिकता तक – एक गौरवशाली इतिहास
जगगनाथ यात्रा की शुरुआत कोई साधारण घटना नहीं थी। इसका आधार अत्यंत गहन धार्मिक भावना और सांस्कृतिक समर्पण में निहित है। इतिहासकारों के अनुसार, इस यात्रा का आरंभ 12वीं शताब्दी में गंग वंश के राजा अनंतवर्मा चोडगंग देव के समय हुआ। उन्होंने भगवान जगन्नाथ के लिए भव्य मंदिर का निर्माण कराया जो आज भी पुरी का गौरव है।
परंतु कुछ किंवदंतियां इस यात्रा की जड़ें और भी प्राचीन मानती हैं। माना जाता है कि द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपना नश्वर शरीर त्यागा, तब उनके अवशेष (विशेष रूप से हृदय) को समुद्र में प्रवाहित किया गया था। वह अवशेष बाद में पुरी में बहकर आया और उसी से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में “ब्राह्मण तत्व” के रूप में प्रतिस्थापित किया गया।
क्या है जगगनाथ रथ यात्रा की अनोखी परंपरा?
हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन शुरू होने वाली जगन्नाथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा अपने-अपने रथों पर बैठकर पुरी के मुख्य मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर दूर गुंडिचा मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। यह यात्रा लगभग नौ दिनों की होती है।
तीनों रथ विशेष रूप से सालवन की लकड़ी से बनाए जाते हैं और हर वर्ष इन्हें नया रूप दिया जाता है। रथ निर्माण की प्रक्रिया ही अपने आप में एक पवित्र अनुष्ठान है। नीलचक्र को पुनः स्थापित किया जाता है, ध्वज फहराया जाता है और तब जाकर यह यात्रा आरंभ होती है।
तीनों रथों के नाम भी विशिष्ट हैं – भगवान जगन्नाथ का रथ ‘नंदिघोष’, बलभद्र का रथ ‘तालध्वज’ और सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलन’ कहलाता है।
जनसमूह की आस्था और राजनीतिक प्रतीक
इस पवित्र आयोजन में केवल साधु-संत या धार्मिक भक्त ही नहीं, देश की राजनीति, प्रशासन और वैश्विक मंच तक के प्रतिनिधि भी हिस्सा लेते हैं। हर वर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु पुरी पहुंचते हैं, जिनमें विदेशों से आए श्रद्धालु भी शामिल होते हैं। यह आयोजन केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि आर्थिक, पर्यटन और सामाजिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण बन चुका है।
भारत पल्स न्यूज की ग्राउंड रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष, 2025 की जगन्नाथ में अब तक अनुमानतः 15 लाख श्रद्धालु पुरी पहुँच चुके हैं। सुरक्षा के विशेष प्रबंध किए गए हैं, ड्रोन निगरानी, AI-सक्षम निगरानी तंत्र और 24×7 कंट्रोल रूम की स्थापना की गई है।
क्यों है यह यात्रा खास?

जगगनाथ यात्रा को ‘चलंत देवता’ की परंपरा का प्रतीक माना जाता है। आमतौर पर किसी देवता की मूर्ति मंदिर के भीतर स्थापित होती है और वहां से बाहर नहीं लाई जाती। परंतु इस यात्रा में स्वयं भगवान भक्तों के बीच आते हैं। यह शाश्वत भावना कि “भगवान चलकर तुम्हारे पास आते हैं” – इसे ही इस आयोजन की आत्मा माना जाता है।
इतिहास में अनेक उदाहरण मिलते हैं जब रथ यात्रा को रोकने का प्रयास किया गया, चाहे वह मुगलकाल हो या ब्रिटिश शासन। किंतु हर बार यह परंपरा और अधिक मजबूत होकर उभरी। यह न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि भारत की अस्मिता और संस्कृति की विजयगाथा भी है।
आध्यात्मिकता से परे – सामाजिक समरसता का संदेश
जगजगन्नाथ यात्रा सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का उत्सव भी है। इस आयोजन में कोई जात-पात, ऊंच-नीच नहीं होती। हर कोई भगवान के रथ की रस्सी खींच सकता है – चाहे वो करोड़पति हो या साधारण श्रमिक। यह भारत की उस सनातन परंपरा का उद्घोष करता है, जिसमें “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना अंतर्निहित है।
भारत पल्स न्यूज की विशेष टिप्पणी
भारत पल्स न्यूज की रिपोर्टिंग टीम ने मौके पर रहकर ग्राउंड कवरेज दी है। श्रद्धालुओं की भीड़, सुरक्षा व्यवस्था, प्रशासनिक तैयारी और धार्मिक वातावरण – सब कुछ अत्यंत व्यवस्थित है। यह यात्रा न केवल भारतीय आस्था का प्रतीक है, बल्कि प्रशासनिक दक्षता और सामूहिक आयोजन की मिसाल भी बन चुकी है।
विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
2025 की जगन्नाथ यात्रा फिर से यह साबित कर रही है कि भारत की आत्मा अब भी जीवित है। एक ओर जहां आधुनिकता की चकाचौंध है, वहीं दूसरी ओर परंपराएं आज भी पूरे सम्मान और उल्लास के साथ जीवंत हैं। पुरी की रथ यात्रा कोई केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि यह भारत की आत्मा की यात्रा है – जो सदियों से चलती आ रही है और आने वाले युगों तक चलती रहेगी।
भारत पल्स न्यूज इस महान आयोजन को एक नई दृष्टि से देखता है – यह न केवल धर्म का उत्सव है, बल्कि भारतीयता का ज्वलंत उदाहरण भी। और आस्था से जुड़ी खबरों के लिए जुड़े रहिए भारत पल्स न्यूज के साथ।
More Stories
एक ही दिन शिव और विष्णु की भक्ति: जब कामिका एकादशी और सावन सोमवार साथ आए
पहला सावन का सोमवार 14 जुलाई को: जानिए कैसे करें शिव की आराधना
चातुर्मास: संयम, साधना और आत्मकल्याण का अनुपम पर्व